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Saturday, 29 September 2012


'खान' होने पर प्रताड़ित न करें: सुप्रीम कोर्ट

सर्वोच्च अदालत ने गुजरात में आतंकवाद के आरोप में दोषी करार दिए 11 लोगों को बरी करते हुए अपने एक अहम फैसले में फिल्म ‘माय नेम इज खान' फिल्म का भी जिक्र किया. ये लोग 18 साल से जेल में थे.
वर्ष 2002 में टाडा (आतंकवाद और विध्वंसकारी गतिविधि रोकथाम कानून) की विशेष अदालत ने इन लोगों को 1994 में गुजरात के अहमदाबाद में भगवान जगन्ननाथ पुरी यात्रा के दौरान कथित तौर पर सांप्रदायिक हिंसा की साजिश रचने का दोषी करार दिया था.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “जिला पुलिस अधीक्षक, महानिरीक्षक और अन्य अधिकारियों को ये जिम्मेदारी दी गई है कि वो कानून का किसी भी तरह दुरुपयोग न होने दें और इस बात को सुनिश्चित किया जाए कि किसी निर्दोष व्यक्ति को ये नहीं लगना चाहिए कि उसे ‘माय नेम इज खान बट आई एम नॉट टेरेरिस्ट’ की वजह से सताया जा रहा है.”

सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख
जांच एजेंसियों पर सवाल

खुद जांच एजेंसियों का रवैया और तौर तरीके भी मुसलमानों के शक और संदेह को बढ़ावा देते रहे हैं. पुलिस और खुफिया अधिकारियों में पेशेवर क्षमताओं की कमी और असंवेदनशील तौर तरीके के कारण बहुत से बेकसूर नौजवानों की जिंदगियां हमेशा के लिए तबाह हो गई हैं.

मीडिया इस्लाम के विरुद्ध ग़लत सूचनाएँ उपलब्ध कराता है

आज मीडिया की नकेल कुछ उन पश्चिम वालों के हाथों में है, जो इस्लाम से द्वेष व शत्रुता रखते हैं। मीडिया बराबर इस्लाम के विरुद्ध बातें प्रकाशित और प्रसारित करता है। वह या तो इस्लाम के विरुद्ध ग़लत सूचनाएँ उपलब्ध कराता है और इस्लाम से संबंधित ग़लत-सलत उद्धरण देता है या फिर किसी बात को जो मौजूद हो ग़लत दिशा देता और उछालता है।

अगर कहीं बम फटने की कोई घटना होती है तो बग़ैर किसी प्रमाण के सबसे पहले किसी मुसलमान को दोषी ठहरा दिया जाता है। समाचार पत्रों में बड़ी-बड़ी सुर्खियों में उसे प्रकाशित किया जाता है। फिर जब आगे चलकर यह पता चलता है कि इस घटना के पीछे किसी मुसलमान के बजाए किसी ग़ैर-मुस्लिम का हाथ था तो इस ख़बर को पहले वाला महत्व नहीं दिया जाता और कभी-कभी, कोई छोटी-सी ख़बर दे दी जाती है।

प्रतिदिन अमेरिका में 2713 बलात्कार की घटनाएँ होती हैं लेकिन वे ख़बरों में नहीं आतीं क्योंकि अमेरिकियों के लिए इस प्रकार की चीज़ें जीवन-चर्चा में शामिल हो गई हैं।

मीडिया इस बात को इस तरह पेश करता है जैसे ये सिर्फ़ मुसलमान ही हैं जो इस प्रकार की गतिविधियों में लिप्त हैं। हर समुदाय के अन्दर कुछ बुरे लोग होते हैं और हो सकते हैं। इन कुछ लोगों की वजह से उस धर्म को दोषी नहीं ठहराया जा सकता 

मुसलमान ही वह समुदाय है जिसमें शराब पीने वालों की संख्या सबसे कम है और शराब न पीने वालों की संख्या सबसे ज़्यादा। मुसलमान कुल मिलाकर दुनिया में सबसे ज़्यादा धन-दौलत ग़रीबों और भलाई के कामों में ख़र्च करते हैं। सुशीलता, शर्म व हया, सादगी और शिष्टाचार, मानवीय मूल्यों और नैतिकता के मामले में मुसलमान दूसरों के मुक़ाबले में बहुत बढ़कर हैं।

जिसके द्वारा आप इस्लाम की असल ख़ूबी को जान सकते हैं पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) हैं।
बहुत से ईमानदार और निष्पक्ष ग़ैर-मुस्लिम इतिहासकारों ने भी इस बात का साफ़-साफ़ उल्लेख किया है कि पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) सबसे अच्छे इंसान थे। माइकल एच॰ हार्ट जिसने ‘इतिहास के सौ महत्वपूर्ण प्रभावशाली लोग’ पुस्तक लिखी है उसने इतिहास के एक सौ महान व्यक्तियों में सबसे पहला स्थान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को दिया है। ग़ैर-मुस्लिमों द्वारा पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को प्रस्तुत करने के इस प्रकार के अनेक नमूने हैं। जैसे—थॉमस कारलाइल, लॉ मार्टिन और भारतवर्ष के बेशुमार विद्वान व इतिहासकार आदि।


मुस्लिम इलाको मे आप को स्कूल कम और पुलिस चौकिया ज़्यादा मिलेंगी !!

रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट मे मुसलमानो और ईसाइयो को रोजगार और शिक्षा मे 15% आरक्षण देने की सिफारिश किया था, उसके बाद सच्चर आयोग ने स्थिति और साफ कर दिया, शिक्षा मे यह समुदाय राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे है, 25% से ज़्यादा 6-14 वर्ष के बच्चे या तो स्कूल जाते नहीं या स्कूल छोड़ देते है ! कालिज मे स्थिति यह है की 50 स्टूडेंट मे 1 मुस्ल
िम होता है यानि की 1:50 का अनुपात है ! मुसलमानो मे शिक्षा के प्रति उदासीनता के दो प्रमुख कारण है :
अब क्यो की यह अशिक्षित होते है और एक घुटन भरे महोल मे रहते है, यह पैसा कमाने की लालच मे आपराधिक गतिविधियो मे शामिल हो कर अपनी बर्बादी के बाकी समान भी कर लेते है !! यही कारण है की जेलो मे इनकी संख्या पहले नंबर पर है
अधिकांश मुस्लिम्स आथिक रूप से इतने मज़बूत नहीं होते की बच्चो को स्कूल भेज सकते वह उनको छोटे मोटे कामो मे लगा देते है ताकि आय का एक साधन बन जाए, यही कारण है की इस समुदाय के लोग कारीगर आदि के कामो मे ज़्यादा दिखाई देते है !!

आज़ादी के वक्त मुसलमानो की अच्छी खासी संख्या सरकारी नौकरियो मे थी, परंतु सरकार की तुष्टीकरण नीति के तहत यह साल दर साल कम होती गयी और 2006 की एक रिपोर्ट के अनुसार यह 5% से भी कम है इस मे भी 98.7% निम्न श्रेरी के पद पर है !!
केवल 3% मुस्लिम बच्चे ही मदरसो का रुख करते है वह भी वही जिनके घरो मे इतना पैसा नहीं होता है की स्कूल भेज सके, कोई भी सम्पन्न परिवार अपने बच्चो को मदरसे पढ़ने नहीं भेजता है, इस के अलावा सरकार अन्य स्कूलो और शिक्षा योजनाओ पर भी लाखो रुपया खर्च करती है !!
यदि जैसा प्रचार किया जाता है उसका आधा भी हक़ीक़त होता तो शायद मुसलमानो या अल्पसंखयकों की यह स्थिति न होती !!