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Friday, 11 January 2013

मैं तो खुद उनके दर का गदा हूँ,
अपने आक़ा को मैं नजर क्या दूं।
अब आँखों में भी कुछ नहीं है,
वरना क़दमों में आँखें बिछा दूं।

मेरे आंसू बहुत क़ीमती हैं,
इनसे वाबस्ता है उनकी यादें,
इनकी मंजिल है ख़ाके मदीना,
ये गौहर यूँही कैसे लुटा दूं।

बेनिगाही पे मेरी न जाएँ,
दीदावर मेरे नज़दीक आयें,
मैं यहीं से मदीना दिखा दूं,
देखने का सलीका सिख दूं।

आने वाली है जब उनकी तारीख,
फूल नातों के घर घर सजा दूं,
मेरे घर में अँधेरा बहुत है,
अपने पलकों पे शम्मे जला दूं।

रौज़ा ए पाक पेशे नज़र है,
सामने मेरे आका का दर है,
मुझको क्या कुछ नज़र आ रहा है,
तुमको लफ़्ज़ों में कैसे बता दूं।

मैं फ़क़त आपको जानता हूँ,
और उसी दर को पहचानता हूँ,
इस अँधेरे में किसको पुकारूँ,
आप फरमाएँ किसको सदा दूं।

काफिले जा रहे हैं मदीने,
और हसरत से मैं तक रहा हूँ,
या लिपट जाऊं क़दमों से उनके,
या क़ज़ा को मैं अपनी सदा दूं।

मेरी बख्शीश का सामान यही है,
और दिल का भी अरमान यही है,
एक दिन उनकी खिदमत में जाकर,
उनकी नातें उन्ही को सूना दूं।

मुझको इक़बाल निस्बत है उनसे,
जिनका हर लफ्ज़ जान ए सुकूँ हैं,
मैं जहां नात अपनी सूना दूं,
सारी महफ़िल की महफ़िल जगा दूं।